षड्दर्शन
दर्शन का विकास
भारतीय दार्शनिक एवं धार्मिक विचारको ने अपने मंथन में बताया, कि मानव को चार पुरुषार्थो की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए। हमारी संस्कृति में चार पुरुषार्थ बताए गए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन पर अनेक विद्वानों ने पुस्तक एवं ग्रंथ उपनिषद मे है लिखें इनको भली-भांति समझने के लिए श्रद्धावान व जिज्ञासु लोगों तक इनका मूल ज्ञान पहुंचाने के लिए, इसका विस्तार वैदिक सरल भाषा में समझाया। जिसे दर्शन के रूप में लोगों तक पहुंचाया गया । मोक्ष मुख्यतः दर्शन संबंधी ग्रंथों का विषय रहा है, इसका अर्थ है ‘जन्म और मृत्यु के चक्र से उद्धार ‘।
सबसे पहले यह विचार महात्मा बुद्ध के उपदेश में आया फिर अनेक दार्शनिकों ने इसे आगे बढ़ाया। इसे षड्दर्शन या आस्तिक दर्शन कहते हैं। इसके निम्न प्रणेता है –
1. सांख्य दर्शन – महर्षि कपिल
2. योग दर्शन – महर्षि पतंजलि
3. न्याय दर्शन – महर्षि गौतम
4. वैशेषिक दर्शन – महर्षि कणाद
5. पूर्व मीमांसा – महर्षि जैमिनी
6. उत्तरी मीमांसा – (वेदांत) महर्षि बादरायण
सांख्य दर्शन
सांख्य शब्द की व्युत्पत्ति संख्या शब्द से मानी गई । मान्यताओं के अनुसार सांख्य सबसे पुराना दर्शन है । इस दर्शन के प्रणेता महर्षि कपिल है। यह दर्शन द्वैतवादी है, पुरुष और प्रकृति के संयोग को सूचित करता है ।इस दर्शन के उत्पत्ति ईश्वर से नहीं अपितु प्रकृति से होती है, यह प्राचीन मत है। सांख्य दर्शन प्रारंभ में भौतिकवादी था, बाद में यह आध्यात्मिकताकी ओर मुड़ गया । भारतीय समाज पर इसका इतना प्रभाव हुआ कि महाभारत (श्रीमदभगवतगीता) पुराण, उपनिषद और चरक संहिता में सांख्य दर्शन का विशिष्ट उल्लेख है।सांख्य दर्शन में कुल 451 सूत्र है। सांख्य दर्शन का सबसे ज्यादा प्रभाव वैज्ञानिक अनुसंधानो पर हुआ है।
योग दर्शन
योग दर्शन मोक्ष ,ध्यान और शारीरिक साधना से मिलता है । योग आज विश्व के बहुत से देशों में प्रचलित है। अधिकांशत: आसन और प्राणायाम को योग माना जाता है ,लेकिन योग दर्शन का एक छोटा भाग आसन और प्राणायाम है। इस दर्शन के प्रणेता महर्षि पतंजलि है। यह दर्शन 4 पदों में विभक्त है ,जिसकी संपूर्ण सूत्र की संख्या 194 है।
इसके 4 पाद
- समाधिपाद
- साधनापाद
- विभूतिपाद
- केवल्यपाद
ज्ञानेद्रियों व कर्मेद्रियों को अपने बस में करना ही योग मार्ग का मूल आधार है। योग के माध्यम से सांसारिक लगाव से दूर व एकाग्रता बढ़ जाती है।
न्याय दर्शन
न्याय दर्शन का विकास तर्कशास्त्र के रूप में हुआ है ।इस के प्रणेता महर्षि गौतम है। इस दर्शन में माना गया है, कि मोक्ष ज्ञान की प्राप्ति से होता है। न्याय दर्शन एक आस्तिक दर्शन है, जिसमें ईश्वर कर्मफल प्रदाता है। इस दर्शन का मुख्य ‘विषय ‘प्रमाण है इस ग्रंथ में 5 अध्याय हैं जो दो-दो आहिक है कुल सूत्र सूत्र 531 हैं।
न्याय दर्शन में अन्वेषण अर्थात जांच पड़ताल के उपायों का वर्णन मिलता है। जहां सत्य की खोज के लिए 16 तत्व विद्यमान है इस ग्रंथ का प्रयोग तर्क के रूप में हुआ । भारतीय विद्वानो को प्रभावित कर तार्किक रीति से सोचने और बहस करने की ओर झुके।
वैशेषिक दर्शन
वैशेषिक दर्शन अर्थात भौतिक तत्वों के विवेचन का महत्व बताता है। इसके प्रणेता उलूक कणाद है।यह दर्शन सात तत्वों की विवेचना करता है जिसमें ‘विशेष ‘पर बल दिया गया है। यह तत्व द्रव्य , गुण, कर्ण, समन्वय, विशेष और अभाव।
वैशेषिक दर्शन के अनुसार पृथ्वी जल आकाश वायु तेज के मेल से नई वस्तुएं बनती है ।यह दर्शन परमाणुवाद की स्थापना करता है वैशेषिक दर्शन से ही भारत में भौतिक शास्त्र का आरंभ हुआ इस दर्शन में स्वर्ग और मोक्ष समा गए।
पूर्व मीमांसा
मीमांसा शब्द का मूल अर्थ ‘जिज्ञासा’ है ।जिज्ञासा अर्थात ‘जानने की इच्छा’ या ‘लालसा’।
पूर्व मीमांसा शब्द का अर्थ है जानने की प्रथम इच्छा ।
इसके प्रणेता महर्षि जैमिनी है। इसमें 16 अध्याय हैं। इस दर्शन में सभी प्रकार के कर्मो की व्याख्या मिलती है। ज्ञान की उपलब्धि के लिए 6 साधनों को बताया गया है प्रत्यक्ष, अनुमान ,उपमान, शब्द ,अर्थापत्ति और अनुपलब्धि।
इसमें वेदों की प्रतिष्ठा तथा अनुष्ठान पर विशेष बल दिया गया। इसके प्रमुख आचार्य सवर स्वामी है। मीमांसा के अनुसार वेद में कही गई बातें सत्य है। इसका प्रमुख लक्ष्य स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति है, अर्थात सांसारिक जन्म-मृत्यु के चक्र से सदा के लिए मुक्त होना।
मीमांसा बताती है कि यज्ञ करना, पुरोहित को दान करना, धार्मिक कृत्यों को करना ,दान दक्षिणा देना यही स्वर्ग व मोक्ष प्राप्ति का साधन है।
उत्तरी मीमांसा (वेदांत)
इसमें ज्ञान पर विशेष बल दिया गया है। यह वेदों की ज्ञान मई शाखा उपनिषद से संबंधित है ।इसे वेदांत भी कहते हैं ।इसमें प्रणेता बादरायण ने ‘ब्रह्मसूत्र’ की रचना की उत्तर मीमांसा के प्रमुख आचार्य ‘गौणपाद’ हैं ।इस दर्शन में चार अध्याय हैं, प्रत्येक अध्याय में चार -चार पाद हैं, और कुल सूत्रों की संख्या 555 है। इसमें बताया गया है कि तीन ब्रह्म अर्थात मूल पदार्थ है -प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा।
इसका भीतरी अर्थ यही है मनुष्य जो सुख -दुख भोगता है वह सांसारिक कारणों से नहीं बल्कि ऐसे कारणों से भोगता है जो ना उसकी जानकारी में है और ना उसके वश में।